मैं कोई लेखक नहीं हूँ , मैं बस कोई नहीं हूँ ।
कहते हैं कि ओस की बूँदें आँखों का श्रृंगार होती है । लेकिन ओस को भी शबनम बनने के लिए कुहासे से गुज़रना पड़ता है । नंगी आँखों से कुछ भी साफ़ नज़र नहीं आता, चारों ओर पसरी हुई है "धुंध" । धुंध का कोई ईमान नहीं होता । मौत के सन्नाटे को चीरता सायरन खोजता है कदमों की आहट । धुंध से घिरा रहता हूँ ,मैं । अब तो हालात और भी दुश्वार होने लगे हैं, जब कि मैं रूह की तामीर के लिए कुछ शब्द खोजना चाहता हूँ, और पन्नो में लगी दीमक हँसती है मुझपर । डरता हूँ उस मौन से जो एक न एक दिन पसर ही जायेगा पन्नों में और रह जायेगी एक अदृश्य "धुंध" ।
बस मेरा मन प्रकृति के संग उड़ता फिरता है वायस विहंग दलों के साथ । आसमान से कुछ भी साफ दिखाई नहीं देता,लेकिन नज़दीक से महसूस होता है कि कुछ परिंदे शनै: विलुप्ति की कगार पर हैं ।
आजकल तो गली गली में लेखकों की भरमार है । खोटा सिक्का भी धड़ल्ले से चल रहा है । सोशल मीडिया पर लेखकों की दौड़ मची है । लोग फॉलोवर्स बढ़ाने में लगे हैं, बगैर आत्म- मूल्यांकन के । जो लेखक नहीं है वो भी अपनी रचना गूगल भगवान से फ्रेंच,इतावली,अंग्रेजी में अनुवाद करा के रातों रात लखपति बन चुके है ।
ये वास्तविक लेखकों का दमन है ।
मेरे विचार से हिंदी का संरक्षण किया जाना बेहद जरूरी है ।हिंदी का बंटाधार करने में गूगल की भूमिका भी नकारी नहीं जा सकती । अंधाधुंध बढते खरपतवार की रोकथाम की जानी चाहिए जिससे कि फलदायी पेड़ों का ज़ायका बरकरार रहे ।
मेरा मानना है कि एक अच्छा श्रोता हमेशा ही अच्छा वक्ता होता है और एक अच्छा पाठक हमेशा अच्छा लेखक । लेकिन अब ये मुमकिन नहीं लगता क्योंकि हर गली में एक चाँद दिख रहा है और उर्दू का रिजेक्टेड माल हिंदी में धड़ल्ले से बिक रहा है ।
क्यों नहीं हम हिंदी को जानने के लिए मुंशी प्रेमचंद को पढ़ते ?
ये मेरी छोटी सी किताब है , आपके लिये ।
मेरी समीक्षा जरूर करें ।
फ़क़त आपका - अनुराग
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धुंध(fiction) ©️
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