स्वत्व से सिद्ध
निर्भीक विहंग-दल
हैं प्रमुदित !रूप केकी नाच रहे
धरा ने फिर ओढ़ा
यौवन का दुकूलसागर मथा जा रहा
मंद सुधा !
मंद गरल !
शनै: बाहर आ रहा ।तब
अन्त में !
प्रकृति नवयौवना
अर्पित करेगी
अपना सर्वस्व !
अपना अमृत !
मीन-दलों, विहंगों और बनैलों को
जो सदा से थे
उसके
निश्छल प्रेमी !और हम ?
रहेंगे सदा
उसी तरह
पर्वत से विस्तृत
नेपथ्य में...
यथा जड़ ।***
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धुंध(fiction) ©️
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