.87. रास्ता - एक मंज़िल

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ज़िद मुझ में नही
पर प्यार में थी
पेहले पास आने की
फिर लौट ना आने की थी

कैसा था वह प्यार
क्यों गुमराह हुए हम यू
मंज़िल तो दिल मे कब से बसी थी
रास्ता न ढूंढ सके हम क्यों

प्यार रास्ते बनाता गया
मगर इन रास्तों ने ही
उसे छिन भी लिया

वो मुड़ी किसी मोड़ पर
हम सीधे चलते गए
वो हँसी बाटती रही
और हम आंसू समेटते रहे

आसुएँ समेट न पाए
तो समंदर बन गया
वो तो तैरती रही
मगर हम डूबते चले गए

डूबते रहे उस प्यार में
उसकी आँखों की उस गहराई में
मगर किसे पता था कि दिल का तूफान
हमे उजाड़ कर फेंक देगा

तूफान वह जुदाई का था
मौसम वह बिछड़ने का था
जिन आखों ने आसमाँ दिखाया
कसूर तो बस उन्ही का था

क्या कसूर चाहे किसी का भी हो
दोषी हमेशा प्यार ही था?

नही नही, दोष किसी और का नही
दोष तो उन राहों का था
जब अलग ही करना था
तो मिलाया ही क्यों?

***

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