a poem by kunwar narayan, translated from hindi
how clear it'd have been to keep moving ahead
if all the ten directions were in front of us,
not all around us.
how easy it'd have been to keep walking
if only we walked
while everything else remained still.
often in an attempt to grasp this perplexed world
from ten ends and with twenty hands
i've made things very difficult for myself.
in the beginning everyone wants
to begin everything from the beginning,
but by the time they reach the end they lose courage.
we're no longer interested
in how the things that began with an aplomb
according to our desires
have come to an end.
when you conquer deep forests and high mountains
and conquer even the last heights—
when you feel that there is no difference now
between you and the hardness of the stones
that you've conquered—
when you face the first snowstorm on your forehead
and don't shiver—
then you'll find that there's no difference
between conquering everything
and not losing courage till the end.
*
अंतिम ऊँचाई ~ कुँवर नारायण
कितना स्पष्ट होता आगे बढ़ते जाने का मतलब
अगर दसों दिशाएँ हमारे सामने होतीं,
हमारे चारों ओर नहीं।
कितना आसान होता चलते चले जाना
यदि केवल हम चलते होते
बाक़ी सब रुका होता।
मैंने अक्सर इस ऊलजलूल दुनिया को
दस सिरों से सोचने और बीस हाथों से पाने की कोशिश में
अपने लिए बेहद मुश्किल बना लिया है।
शुरू-शुरू में सब यही चाहते हैं
कि सब कुछ शुरू से शुरू हो,
लेकिन अंत तक पहुँचते-पहुँचते हिम्मत हार जाते हैं।
हमें कोई दिलचस्पी नहीं रहती
कि वह सब कैसे समाप्त होता है
जो इतनी धूमधाम से शुरू हुआ था
हमारे चाहने पर।
दुर्गम वनों और ऊँचे पर्वतों को जीतते हुए
जब तुम अंतिम ऊँचाई को भी जीत लोगे—
जब तुम्हें लगेगा कि कोई अंतर नहीं बचा अब
तुममें और उन पत्थरों की कठोरता में
जिन्हें तुमने जीता है—
जब तुम अपने मस्तक पर बर्फ़ का पहला तूफ़ान झेलोगे
और काँपोगे नहीं—
तब तुम पाओगे कि कोई फ़र्क़ नहीं
सब कुछ जीत लेने में
और अंत तक हिम्मत न हारने में।