27. मर्द

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जीवन दिया हैं तुमको हमने,
इस जीवन को क्यों ठुकराते हो?
लहु के लाल रंग में क्यों
अपने दो हाथ रंगाते हो?

इश्क़ नहीं, हवस हैं यह,
अपना इमान जलाते हो!
स्त्री हूँ मैं! इस शब्द को भी ;
अपने से छोटा पाते हो!

माँ, बहन, भाभी की इज़्ज़त
चीड़- फॉर कर जाते हो!
फिर क्यों याद दिलाये तुमको,
किसी माँ के भी तुम लाडले हो!

वह देवी हैं,उस देवी के
प्रतिमा पर हार चढ़ाते हो!
पर धरती पर उस देवी की
अर्थी के कारण बन जाते हो!

इंकार हैं इश्क़, तो क्यों नहीं,
इस इंकार पर सर झुकाते हो!
अपने ही जीवन की राह पर,
इतने कांटे तुम खुद बिछाते हो!

याद रहे हर बार यो तुम,
जब झूठी मर्दानगी दिखाते हो,
हर उस रूह के दर्द तले,
तुम अभिशाप का बोझ बढ़ाते हो!

तुम इंसान नहीं, पशु नहीं,
हैवान के नीचे का दर्जा पाते हो!
अपने ही हाथों से खुद अपने,
ज़िन्दगी का गला दबाते हो!

तुम भाई हो, तुम बेटे हो,
पती और जीवन-साथी हो!
मान रखलो इन रिश्तों का,
इस में ही तुम मर्द कहलाते हों!

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