30. कुछ सवाल है तुमसे!

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आज कुछ सवाल है तुमसे!

अगर शिकवों सी तुम्हे लगती हूँ,
तो क्यों इश्क़ है तुमसे?
अगर आखों में यो चुभती हूँ,
तो क्यों वह आखें जुदा लगती है सबसे?
अगर तुम्हारे काबिल नहीं,
तो क्यों इंकार नहीं इस हाँ-ना के जंग से ?
क्यों रोज़ यो गम के ज़ंजीरों में
खुदको बाँध रही हूँ मैं अब तुमसे?

आज कुछ सवाल है तुमसे!

क्यों मिलों चलने के साथ में
बस बोझ ही हूँ तुमपे?
क्यों हद-बेहद मंज़ूरी में
सिर्फ इंकार हूँ तुमसे?
जब साथ निभाने की चाह थी,
तो फिर काटों सा रिश्ता क्यों है तुमसे?
क्यों सफर के पुरे होने के इंतज़ार में
यह खोखली पड़ी ऐतबार है तुमपे?

आज कुछ सवाल है तुमसे!

उम्मीद की डोर पर क्यों
डगमगाती सी आस हैं तुमसे?
क्यों ठोकरों में उलझी, तिलमिलाती सी,
इश्तिआक अब भी है तुमसे?
इन लिखे हज़ारों सवालों में से कुछ ही सही,
पर जवाबों का शौक़ भी हैं तुमसे!
और इन ठोकरों से बार-बार गिरने पर भी,
साहारे की आशा, तुम ही से !

तुम ही से !

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