अध्याय 1 - राज्याभिषेक (भाग 1)

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फूलों से भरी घाटी, जहाँ सब लोग बड़े ही प्यार से, मिल जुलकर रहते हैं। मोर हर सुबह अपने पँख फहराते हैं, कूह-कूह करती कोयल मानों जैसे मन को मोह लेने वाले गीत लगा रही है।

स्वर्णलोक, एक बहुत ही विशाल राज्य, जो कि धर्मराज साम्राज्य के अंदर आता था।

"अरे! महाराज आए है। जल्दी से बैठेने का इंतज़ाम करो!" स्वर्णलोक के राजा, श्री त्रिलोक नाथ हर चार माह के बाद, अपनी प्रजा से मिलने और उनकी शिकायतें, बातें सुनने अलग अलग जगहों पर जाया करते थे।

"तो बताईए। क्या शिकायतें हैं अब की बार?" महाराज ने मुस्कुराते हुए पूछा।

"महाराज, शिकायतें तो कुछ भी नहीं।" उस गाँव के एक निवासी ने जवाब दिया। उसकी बात पर बाकी ग्रामीणों ने भी हामी भरी। वह सब हाथ जोड़े महाराज के आगे, नीचे मिट्टी में बैठे थे।

"ये कैसे संभव है?" राजा ने हँसते हुए कहा।

गाँव वालों ने एक दूसरे की तरफ देखा। फिर उनमें से एक व्यक्ति उठ खड़ा हुआ और मुस्कुराते हुए बोला, "महाराज, जब से आपने राजकुमार को सभी काम सौंपे हैं, तब से हमें कोई भी दुविधा का सामना नहीं करना पड़ा है।"

"जी महाराज। राजकुमार हम सबको अपने परिवार जैसा मानते है।" एक औरत ने कहा। उसकी आँखें भर आई थी, उसने अपने बच्चे को गोद में लिया और अपने आँसू पोंछे।

राजा को यह सुनते हुए बहुत खुशी हुई, "लगता है अब समय आ चुका है कि कुमार का राज्याभिषेक किया जाए।"

राजकुमार को राज्य का काम सौंपने से पहले राजा श्री त्रिलोक नाथ ने अपने मंत्रियों को यह ज़िम्मेदारी दी थी जो कि शायद इतने सफल नहीं हो पाए।

केवल एक वर्ष में ही अपनी प्रजा का दिल जीत के राजकुमार ने महाराज का दिल भी जीत लिया था। इसलिए महाराज ने फैसला किया कि अब उन्हें राजकुमार का अभिषेक कर देना चाहिए।

इस खास अवसर पर, महल को बड़ी ही खूबसूरत तरीके से सजाया गया। राज्य के सभी लोग ये दिन बड़े ही धूम धाम से मना रहे थे।

अलग अलग देशों से भी लोगों को आमंत्रित किया गया था। उन्ही में से एक था अर्जुन, अँबुझ राज्य का राजकुमार। जिसकी उम्र थी 21 साल। वह बहुत ही सुन्दर और प्यारा था। उसकी आवाज़ में मानो जैसे शहद घुला हो, सुनते ही मन को चैन आ जाए।

अलग अलग देशों से भी लोगों को आमंत्रित किया गया था। उन्ही में से एक था अर्जुन, अँबुझ राज्य का राजकुमार। जिसकी उम्र थी 21 साल। वह बहुत ही सुन्दर और प्यारा था। उसकी आवाज़ में मानो जैसे शहद घुला हो, सुनते ही मन को चैन आ जाए।

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"अरे मधु! यह क्या कर रही हो!" उसने हँसते हुए कहा।

हर बार की तरह वह इस बार भी अपनी पक्की सहेली के साथ मस्ती कर रहा था। मधुबाला को वह अपनी दासी कम, और अपना मित्र ज्यादा मानता था।

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"कुमार, ये लड्डू तो आपको चखने ही पड़ेंगे।" मधुबाला अर्जुन के पीछे मोतीचूर का एक लड्डू लिए भाग रही थी।

"दीदी ने कल लड्डू खिला खिला कर मेरी हालत खराब कर दी।" अर्जुन हँसते हुए बोला और मधुबाला से दूर भागते हुए चिल्लाया। "बस! अब और लड्डू नहीं!"

वह दोनों मस्ती कर रहे थे कि तभी अचानक से कुछ बदमाशों ने मधुबाला का रास्ता रोक लिया, "अरे रूप की कन्या किधर चली?"

BL - क्षत्रिय धर्म सर्वप्रथम (Duty Always First)जहाँ कहानियाँ रहती हैं। अभी खोजें