अध्याय 4 (भाग 11)

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तीर्थ के पिता जी का अंतिम संस्कार करके उनकी अस्थियां बहा दी गई। मुखिया को बँधी बना लिया गया। एक बार फिर जगतपुर में धर्म का उजाला हुआ। सभी लोगों ने इन्द्रजीत व बाकियों का धन्यवाद किया।

"आपका बहुत बहुत आभार, युवराज।" तीर्थ ने सिर झुकाकर कहा।

"इसकी आवश्यकता नहीं।" इन्द्रजीत ने उत्तर दिया। उन सबकी लौटने की तैयारी थी। अब समय आ चुका था कि लव तथा तीर्थ एक दूसरे को अलविदा कहते। वे दोनों एक दूसरे को देख रहे थे, बिना कुछ कहे। उन्हें दूर से देख मधुबाला ने आह भरी और अपने काम में लग गई।

कुछ क्षण बाद सेनापति कुबेर ने इन्द्रजीत की ओर देखा। इन्द्रजीत ने आज्ञा दी। सेनापति ने अपने सैनिकों को वहाँ से बैलगाड़ी को शुरू करने की आज्ञा दी। इसी के साथ वे वहाँ से रवाना हो गए।

सबसे आगे घोड़े पर सेनापति कुबेर था। उसके पीछे बैलगाड़ी में उच्च स्तर के दो सैनिक अमरनाथ को बँधी बनाए बैठे थे। उस बैल गाड़ी के दोनों तरफ कुल चार सैनिक घोड़े पर थे। फिर अर्जुन और मधुबाला दूसरे बैलगाड़ी में थे और फिर आखिरी बैलगाड़ी में इन्द्रजीत और लव।

लव उदास होकर बैठा था। इन्द्रजीत ये सब देख रहा था। उसे लव के लिए बुरा लगा किंतु वह कुछ कर भी नहीं सकता था। तभी उन्हें उनकी तरफ घोड़े के भागने की आवाज आई। लव ने तुरन्त खिड़की का पर्दा हटाया और बाहर देखा। बाहर तीर्थ अपने घोड़े पर आ चुका था।

"युवराज! आप भूल गए! आपने मुझे अपने दास के रूप में स्वीकार किया था। यदि मैं आपके साथ नहीं आता तो कहा जाता?" तीर्थ ने हँसते हुए कहा। उसे वहाँ देख लव के चहरे पर मुस्कान आ गई। उसकी यह प्रतिक्रिया देख तीर्थ अत्यंत खुश हुआ। इन्द्रजीत भी मन ही मन दोनों के लिए खुश हुआ।

सेनापति कुबेर कश्यप के नेतृत्व में वे कुछ घंटों में सवर्ण लोक के महल में पहुंच गए। इन्द्रजीत सीधा महल के न्यायलय में गया जहां महाराज पहले ही उन सबकी प्रतीक्षा कर रहे थे। इंद्रजीत ने अपने पिता को घुटनों पर झुकाकर प्रणाम किया। त्रिलोक नाथ ने उसे उठने की आज्ञा दी। बाकी सब भी वहाँ आ चुके थे। सबने महाराज को प्रणाम किया। अर्जुन ने उसके बाद अपने मित्र हंसराज को देखा और उसके पास दौड़ा चला गया।

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