अध्याय 9 (भाग 3)

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गौ माताओं को भोजन कराने के पश्चात्, तीर्थ और लव बाग में तालाब के समक्ष बैठे थे।

"लव, मुझे अत्यंत खुशी होती है जब मैं ये सोचता हूँ, कि हम दोनों एक दूसरे से मिले।" तीर्थ तालाब की ओर देख कर बोला।

लव मुस्कुराया, "मुझे भी।"

वे दोनों एक दूसरे की ओर देखते हैं और मुस्कराते हैं।

"कभी कभी मैं विचार करता हूँ, कि यदि उस दिन युवराज और तुम जगतपुर ना आते, तो ना जाने मैं कहाँ होता।" तीर्थ बोला।

लव तीर्थ का हाथ थामता हैं, व प्रेम सहित उसे चूमता हैं। "मैं हमेशा तुम्हारे संग रहूँगा।" वह ज़ोर से मुस्कुराया। तीर्थ भी मुस्कुराने लगता हैं।

वहीं दूसरी ओर, इन्द्रजीत और हंसराज राजनिवास में टहल रहे थे। तभी हंसराज इन्द्रजीत से प्रश्न करता हैं।

"युवराज, क्या विचार हैं?"

"किस संदर्भ में?" इन्द्रजीत पूछता हैं।

"नील कलम की सालगिरह निकट हैं।" हंसराज उत्तर देता है।

"क्या विचार करना है उस हेतु?"

"अरे, क्या कह रहे हो!" हंसराज चलते चलते रुका। "जाओगे या नहीं?"

इन्द्रजीत भी रुकता हैं, व उसकी ओर मुड़ता हैं। "हर वर्ष की भांति, इस वर्ष भी मैं कार्य करने में व्यस्त हूँ, तो निर्णय है कि मैं नहीं जाऊँगा।" वह बोला।

"कार्य, कार्य, कार्य। जब देखो कार्य।" हंसराज ने तंज कसा। वह निराश था।

इन्द्रजीत वापिस मुड़ा और चलने लगा। "कार्य नहीं तो और क्या? और वैसे भी, मैं वहाँ जाऊँ भी, तो किसके लिए?"

"कुमार अर्जुन के लिए!" हंसराज के मुख से निकल गया। वह तो केवल ऐसा सोच रहा था, किंतु भूल से वे शब्द उसके मुख से निकल गए।

इन्द्रजीत तुरंत मुड़ा। वह चकित रह गया। "क्या?" उसका चेहरा ये प्रश्न कर रहा था।

हंसराज बात को पलटाने के लिए ज़ोर ज़ोर से खांसने लगा। "वो मैं कह रहा था कि..." वह घबराकर इधर उधर देखने लगा।

"क्या कह रहे थे आप?" इन्द्रजीत जिज्ञासा में प्रश्न करता हैं।

"क्या...?" हंसराज उसकी ओर देखता हैं। जब वह उसके नेत्रों में देखता है तो उसे एहसास होता हैं, कि जीवन में प्रथम बार उसने इन्द्रजीत के नेत्रों में किसी के प्रति कोई जिज्ञासा देखी थी। वह और छुपा नहीं सकता था। अंततः उसने पराजय स्वीकार की। उसने आह भारी। "बात ये है कि, नील कलम के त्योहार में कुमार अर्जुन भी हर वर्ष आते हैं। तुम दोनों की मित्रता देख, मैं सोच रहा था कि यदि तुम नहीं गए तो उन्हें कैसे लगेगा।" हंसराज ने स्पष्ट शब्दों में कहा।

इन्द्रजीत कुछ क्षण के लिए सोचता है, फिर मुड़ जाता हैं। "मुझे कार्य हैं वरिष्ट, मैं चलता हूँ। आज्ञा दीजिए।" ऐसा कहकर वह वहाँ से चला गया।

"युवराज..." हंसराज निराशा में आह भरता हैं।

...

महाराज के कक्ष में, हंसराज और महाराज दोनों बैठे होते हैं। दोनों निराश।

"क्या करें, महाराज। युवराज को तो अभी भी, कार्य के सिवाय कुछ और दिखता ही नहीं।" हंसराज बोला।

राजा त्रिलोक नाथ हामी में गर्दन हिलाते हैं। "समझ नहीं आता क्या किया जाए।"

"क्यूँ ना आप उन्हें वहाँ जाने का आदेश दें? किसी कार्य का बहाना करके।" हंसराज बोला।

"किन्तु ये ठीक नहीं रहेगा। मैं चाहता हूँ कि वह अपनी इच्छा से वहाँ जाए। हमारा लक्ष्य उन्हें स्वयं जीवन जीने की कामना रखवाने का है, ना कि आदेश पर उनकी अपनी मर्जी के विरुद्ध कहीं भेजना।" त्रिलोक नाथ ने उत्तर दिया।

"उचित कह रहे हैं, महाराज। ऐसे में तो..." हंसराज कहता है, "अब एक ही उपाय हैं।"

"क्या?"

"कुमार अर्जुन वेनू!"

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