अध्याय 9 (भाग 4)

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रात्रि हो चुकी थी। लव इंद्रजीत के कक्ष में उसके साथ था। युवराज के सोने का समय हो चुका था, किंतु वह अभी भी खिड़की से बाहर आकाश की ओर देख रहा था। ऐसा प्रतीत हो रहा था, जैसे मानों वह किसी की प्रतीक्षा कर रहा हो।

"क्या हुआ युवराज?" लव ने चिंतित होकर प्रश्न किया। उसे इंद्रजीत बड़ा दुखी और निराश लग रहा था।

इंद्रजीत ने उसकी ओर देखा, "कुछ नहीं, लव। अधिक रात्रि हो चुकी है। जाओ, तुम भी सो जाओ।" ऐसा कहकर उसने एक अंतिम बार मुड़कर खिड़की की ओर देखा, और फिर निराशा में आह भरकर अपने पलंग पर जाकर लेट गया। लव ने भी चिंता में आह भरी।

"शुभ रात्रि, युवराज।" ऐसा कहकर, लव द्वीपों को बुझाकर, कक्ष का द्वार बंद करके वहाँ से चला गया।

वहाँ से जाने के पश्चात्‌ , जब वह अपने कक्ष में पहुँचा, तो वहाँ पहले से ही कोई पलंग पर लेटा हुआ था।

"तीर्थ?" लव ने हैरान होकर बोला और तुरंत द्वार बंद किया, इससे पहले कोई और भीतर देखता।

"चौंक क्यों गए?" तीर्थ हँसा, व पलंग से उठा।

लव हँसा और पलंग पर चढ़ गया। "बताना तो चाहिए था।"

"क्यों? ऐसी क्या तैयारी करनी थी?" तीर्थ लव को छेड़ते हुए बोला।

"तीर्थ!" लव ने उसे डाँटा और क्रोधित होकर दूसरी ओर मुहँ कर लिया। असल में तो वह शर्मा रहा रहा था।

तीर्थ हँसते हुए उसके पास गया, व पीछे से उसे गले लगा लिया। "लव, आज रात्रि मैं यहीं सोउँगा।" वह मुस्कुराते हुए बोला।

"तुम्हें रोक कौन रहा है?" लव ने हंसते हुए उत्तर दिया।

"लव।" तीर्थ बोला।

"हाँ?"

तीर्थ ने हँसना बंद कर दिया था। वह केवल लव की ओर प्रेम से देख रहा था। उसने उसकी कमर पर हाथ रखा, व पीठ के बल उसे पलंग पर लेटा दिया। वह स्वयं उसके उपर था, व केवल उसके नेत्रों में देखे हुए था। उसका एक हाथ लव की कमर पर था, तो दूसरा लव के बाईंने ओर टेके हुए था। उसकी कमर से हाथ हटाकर, वह प्रेम सहित उसके केश सहलाने लगा।

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