अध्याय 1 ( भाग 3)

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"तो अब हमें आज्ञा दीजिये।" अर्जुन मुस्कुराया और मधुबाला के साथ वहां से चल दिया।

अर्जुन को जाते हुए देख देव ने लंबी सांस ली और फिर छोड़ी, "कोई इतना प्यारा कैसे हो सकता है?" उसने धीमी सी आवाज़ में कहा। उसके चेहरे पर एक अंजान सी मुस्कान थी जिसका अंदाज़ा शायद उसे भी नहीं था।

"रुको रुको!" देव कमल के साथ खड़े उसके मित्र योगेश ने कहा। "कही ये प्रेम तो नहीं?" वह हैरानी भरी आवाज़ में चिल्लाया और वो भी बीच भरे बाज़ार में।

देव ने तुरंत ही अपनी मुस्कान छुपाई और बेचैनी के साथ इधर उधर देख कर आदेश देने लगा, "जल्दी करो। हमें बहुत सारे कार्य सँभालने है। ज़रा सी भी देरी नहीं होनी चाहिए।" यह कहकर वह तेज़ी से आगे चल पड़ा।

"अरे! रुको तो सही!" पवन, देव का चौथा मित्र चिल्लाया।

...

"कुमार! सच में स्वर्णलोक राज्य वाक़ई में स्वर्ण ही है।" मधुबाला महल को निहारते हुए बोली।

"सत्य वचन।" अर्जुन ने जवाब दिया।

राजमहल में उस दिन राजकुमार ईन्द्रजीत का राज्य अभिषेक था, इसलिए दूर दूर से राजकीय व आम लोग आए थे। इतने लोगों को एक साथ देख अर्जुन अचंभित था क्योंकि इससे पता चलता है कि राजकुमार इंद्र्जीत उन सभी लोगों को कितने प्रिय थे। अर्जुन यह सब सोच ही रहा होता है कि उसी वक्त  द्वारपाल कहता है, "देवों के आशीर्वाद सहीत, राज्य के हित में सदैव खड़े रहने वाले, शुद्ध व विकसित विचारों वाले, स्वर्णलोक के राजाधिराज, योगीराज, श्री श्री श्री त्रिलोक नाथ पधार रहे हैं।" यह सुनते ही राजमहल में बैठे सभी सदस्य सम्मान सहित उठ खड़े हुए। अर्जुन और मधुबाला भी।

राजा त्रिलोक नाथ के पीछे ही राजकुमार इंद्रजीत भी आ रहे थे। उसकी आँखें मानों जैसे अपने पिता के आदेशों के अलावा कुछ और देखती ही नहीं। परन्तु उन ही आँखों में यदि कोई कुछ क्षणों से अधिक देख लें, तो डूब ही जाए। अर्जुन का भी यही हाल था। वह इंद्रजीत से अपनी नज़रे हटा ही नहीं पा रहा था।

राजा त्रिलोक नाथ के पीछे ही राजकुमार इंद्रजीत भी आ रहे थे। उसकी आँखें मानों जैसे अपने पिता के आदेशों के अलावा कुछ और देखती ही नहीं। परन्तु उन ही आँखों में यदि कोई कुछ क्षणों से अधिक देख लें, तो डूब ही जाए। अर्जुन का भी यही हाल था। वह इंद्रजीत से अ...

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राजकुमार इंद्रजीत 

मधुबाला भी राजकुमार की सुन्दरता देख चकित थी, "कुमार, यह राजकुमार तो बहुत ही-" उसने अर्जुन की ओर देखा और उसे तुरंत ही समझ में आ गया कि अर्जुन पहले से ही स्वर्णलोक के राजकुमार की आंखों में डूब चुका था। वह मुस्कुराने लग गई।

अर्जुन इंद्रजीत को देख ही रहा होता है कि तभी उसकी नज़र उसके सामने खड़े व्यक्ति पर पड़ी। वह व्यक्ति कोई और नहीं बल्कि देव कमल था। "ये यहाँ क्या कर रहे हैं?" उसने सोचा। "जो भी हो।" उसने देव से नज़र हटाई और फिर से इंद्रजीत की ओर देखने लगा। तभी अचानक इंद्रजीत ने भी उसकी ओर देखा। दोनों ने कुछ ना कहते हुए भी नज़रों ही नज़रों में बहुत कुछ कह दिया।

राज्य अभिषेक के सभी कार्य शुरू हुए और राज्य पुरोहित ने मंत्र पढंने शुरू कर दिए। सभी मौजूद लोग राजकुमार इंद्रजीत को ही निहार रहे थे मानो जैसे वह कोई देव हो।

धीरे धीरे कुछ ही क्षण के अंदर राज्य अभिषेक सम्पन्न हुआ।

"हमें गर्व है ऐसा पुत्र पाके जिसके लिए उसका कर्तव्य ही सबसे श्रेष्ठ है। किंतु..." राजा त्रिलोक नाथ बोलते बोलते रुक गए।

"किंतु क्या महाराज?" हँसराज दामोदर, जो कि महाराज का सबसे भरोसेमंद मंत्री था, ने पूछा। (वह एक नौजवान व अनुभवी व्यक्ति था।)

"मुझे डर है कि कहीं हर क्षण केवल कार्य और कर्तव्य सँभालते सँभालते वह अपना जीवन जीना ही ना भूल जाए।" महाराज ने जवाब दिया। "ऐसा लगता है कि जैसा ज़िम्मेदारीयों के कारण उसने जीवन में अपनी खुशी की लालसा ही छोड़ दी है।"

हँसराज ने इंद्रजीत की ओर देखा। इंद्रजीत की आंखों में ना ही कोई चमक थी और ना ही कोई और भावना। केवल कार्य की चिंता। हँसराज ने वापस महाराज की ओर देखा और कहा, "मैं राजकुमार को अपने अनुज (छोटा भाई) जैसा मानता हूँ। मैं आपको वचन देता हूँ कि राजकुमार को अपना जीवन जीने की लालसा जल्द ही महसूस होगी।" वह मुस्कुराया।

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