अध्याय 8 (भाग 2)

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अर्जुन वापिस नीचे चला गया। उसने दूर से देखा कि इन्द्रजीत उसकी प्रतीक्षा कर रहा था। "कुमार...इन्द्रजीत..." उसने धीमी गति से पांव आगे बढ़ाए।

इन्द्रजीत ने मूड के देखा तो अर्जुन को स्वयं की ओर आते पाया। "कुमार अर्जुन!" वह तुरंत उसकी ओर भाग कर गया। अर्जुन घबरा गया।

"कुमार इन्द्रजीत...आप...ये..." अर्जुन घबराते हुए इधर उधर देखते हुए बोला। उसने सोचा नहीं था कि इन्द्रजीत उसकी ओर इस प्रकार भाग पर आएगा।

"आइए।" इन्द्रजीत ने हाथ आगे करके कहा। अर्जुन पहले तो शरमाया, फिर उसने अपना हाथ इन्द्रजीत के हाथ में रख दिया। वे दोनों हाथ पकड़ते हुए नीचे आए। नीचे आते ही दोनों सुध बुध में लौटे, तो हाथ छोड़कर दूर खड़े हो गए। इन्द्रजीत खांसते हुए बोला, "आप ठीक हैं ना अब?"

अर्जुन लज्जा के मारे लाल हो चुका था। "जी..." उसने उत्तर दिया।

"सुनकर आनंद आया।"

"जी...?...ओह...जी..." अर्जुन इधर उधर देखने लगा। दोनों चुप थे। उन्हें समझ नहीं आया कि वे बोले तो बोले क्या।

तभी वहाँ अंशुमन आ पहुंचा। उसे खबर मिल चुकी थी कि इन्द्रजीत वहाँ आया है। वह अर्जुन को किसी और के साथ नहीं देख सकता था। खबर मिलते ही वो तुरंत वहाँ जा धमका।

"कुमार अर्जुन!" मुस्कराते हुए उसके पास गया और उसके कन्धे पर हाथ रखता हुआ बोला। "चलिए ना, घुड़सवारी पर चले?"

"कुमार अंशुमन? आप यहाँ कैसे?" अर्जुन ने प्रश्न किया। इन्द्रजीत को उनका इतने पास होना अटपटा लगा। किंतु वह कुछ कर भी नहीं सकता था।

"मेरा मन हुआ आपसे मिलने का, तो आ पहुंचा। कुछ भूल हुई क्या?" अंशुमन ने हंसते हुए उत्तर दिया।

"नहीं नहीं..." अर्जुन हँसा।

"वैसे...सवर्ण लोक के युवराज आज यहाँ कैसे?" अंशुमन ने पूछा।

इन्द्रजीत ने उसे उत्तर देना आवश्यक नहीं समझा। उसने दूसरी ओर देख लिया। उसे पहले से ही अंशुमन पर विश्वास नहीं होता था। वह उसके साथ अधिक वार्तालाप नहीं रखना चाहता था। उसे उसपर सदैव आशंका थी। किन्तु उसकी नज़र अर्जुन के कंधे पर पड़े उसके हाथों से हटती ना थी। अर्जुन को यह बात समझ में आ गयी, तो उसने थोड़ा हट कर अंशुमन के हाथ अपने कंधों से हटा लिया। अब जाकर इन्द्रजीत ने चैन की साँस ली। अंशुमन दांत पीसता रह गया।

वहीं दूसरी ओर, लव बिस्तर पर पड़ा था। "क्या आवश्यकता थी यहाँ आकर ये सब करने की?" वह बोला।

"क्यों, तुम्हें पसंद नहीं आया? फिर से करें क्या?" तीर्थ ने उसे छेड़ते हुए कहा।

"चुप रहो!" लव ने क्रोध से कहा। वह शर्मा गया।

"अरे। क्या हुआ?" तीर्थ हँसा। "किन्तु लव, मेरी इच्छा हैं कि तुम सदैव मेरे रहो। कितना भाग्य वाला वो दिन था जब हम दोनों प्रथम बार एक दूसरे को मिले।" उसने मुस्कुराते हुआ कहा और लव को अपनी बाहों में ले लिया।

लव ने शर्माते हुए हामी भरी, "कहते तो उचित हो।" वह भी मुस्कराने लगा। "बस इसी तरह, कुमार और युवराज भी मिल जाए।"

"हम्म। मेरा हृदय मानता हैं कि ऐसा जल्द ही होगा।" तीर्थ ने उत्तर दिया।

राजनिवास में महाराज लौट चुके थे। मधुबाला अवसर पाते ही उन्हें धन्यवाद कहने chli गयी। "महाराज।" उसने उन्हें प्रणाम किया।

"क्या बात हैं मधु? आज मुझसे क्रोधित नहीं बेटी?" महाराज ने प्रश्न किया।

"महाराज, मेरी इतनी हिम्मत कहाँ?" मधु ने उत्तर दिया। "आपने जो कुमार के लिए किया, उसके लिए आपका धन्यवाद करूँ समझ नहीं आता।" महाराज ने उसकी ओर ऐसे देखा जैसे उसे कुछ समझ ना आया हो। मधु को आशंका हुई। "महाराज...युवराज इन्द्रजीत को..." उसने पूछा, "आपने ही आमंत्रित किया ना?"

"युवराज इन्द्रजीत को?" महाराज बोले, "मधु, जो चिट्ठी मैंने भेजी वो तो उन तक पहुंची ही नहीं। मैंने सिपाही को भेजा था चिट्टी भेजने को, किन्तु उस सिपाही का घोड़ा आधे रास्ते में ही बीमार पड़ गया। क्षमा करना। मैंने पूर्ण प्रयास किया किन्तु चिंता मत करो। मैं कल ही वो पत्र भिजवाने का आदेश दे दूँगा।"

"क्या?" मधु ने दंग जोकर कहा। "युवराज को आपने आमंत्रित नहीं किया?"

"नहीं, अभी नहीं..."

"तो फिर वो यहाँ...कैसे?"

महाराज ये सुनकर आश्चर्य से बोले, "वो यहाँ हैं? क्या? मुझे किसी से सूचित क्यूँ नहीं किया?" वे तुरंत उठे और उसका स्वागत करने चले गया।

"युवराज को महाराज ने नहीं बुलाया?" मधु बोली, "इसका अर्थ हैं कि वे स्वयं...कुमार अर्जुन से मिलने आए?" मधु ये समझते ही फ़ूलें ना समाई। "फंस गए युवराज हमारे कुमार के चक्कर में!" वह नाचते हुए बोली। उसकी खुशी का ठिकाना ना था। "आखिरकार वो दिन आ ही गया!" वह मुस्कराते हुए बोली।

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