अध्याय 6 (भाग 3)

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अर्जुन को कक्ष में बंद करके केशव वहाँ से चला गया। अर्जुन कक्ष को खटखटाने लगा किंतु इससे कोई अन्तर नहीं पड़ा। वह चिल्लाता ही रह गया। कुछ घंटों के पश्चात कक्ष में कुछ दासी आयी और अर्जुन को ज़बरदस्ती अपने संग ले गयी। उन्होंने उसे स्नान करवाया और अति सुन्दर पोशाक पहनायी व पुष्प की सुगंध वाला जल उपर छिड़क दिया।

"ये सब क्यूँ कर रहे हों मेरे साथ?" अर्जुन ने पूछा। वह दासियां उसे कहीं ले जा रहीं थीं।

वे उसे एक द्वार के समक्ष छोडकर चली गयीं। "ये क्या?" उसने सोचा और उस कक्ष के भीतर चुप चाप चला गया। भीतर जाते ही अंधेरे से उसका सामना हुआ। परंतु अंधेरे में उसे बेहतर लग रहा था। उसने कक्ष का द्वार बंद कर लिया और ध्यान से कक्ष के बिस्तर पर जाकर लेट गया। उसे वह क्षण याद आने लगे जो उसने इन्द्रजीत के संग व्यतीत किए थे। "आप कहाँ होंगे?" वह सोचने लगा।

वहीं दूसरी ओर, इन्द्रजीत, तीर्थ व लव अर्जुन को खोज रहे थे। उन्होंने हर स्थान पर रूककर हर किसी से पूछा यदि उन्होंने अर्जुन को देखा था। वे उसका एक चित्र लेकर जा रहे थे। इन्द्रजीत को अधिक चिंता हो चुकी थी। उसने ना भोजन किया व नाहीं जल ग्रहण किया। उसे जैसे अपने जीवन का स्मरण ही नहीं। उसे केवल अर्जुन की चिंता थी। लव और तीर्थ भी ये देखकर चिंतित थे। उन्होंने उसे कुछ खाने को कहा पर जैसे ही वह खाने लगता, उसे बेचैनी होने लगती।

वहीं अर्जुन निद्रा में जाने वाला था कि उसे ऐसा लगने लगा जैसे उसके हाथों को कोई रस्सी से बाँध रहा हो। उसने तुरंत नेत्र खोले। उसने देखा कि कोई उसके हाथ बाँध रहा था। "कौन हो तुम!" वह चिल्लाया। उस व्यक्ती ने दीप जलाए तो पता चला वह केशव था। "केशव ?"

"अब तुम कहीं नहीं भाग सकते।" केशव धीरे धीरे अर्जुन के निकट आया। उसने उपरी शरीर के वस्त्र खोल दिए थे। वह अर्जुन के उपर लेट गया। अर्जुन को अजीब लगने लगा। केशव ने संकोच ना किया और अर्जुन की गर्दन को अपने होंठो से स्पर्श करने लगा।

"केशव! ऐसा मत करो!" अर्जुन चिल्लाया। उसके हाथ बंधे होने के कारण वह कुछ ना कर सका।

केशव वहीं रुक गया। उसका एक हाथ नकली था जो युद्ध में कट गया था। उसने उसे अर्जुन को दिखाया, "मैंने क्या क्या नहीं किया तुम्हारे लिए। किन्तु अंत में तुमने मेरे साथ क्या किया ?" उसकी आँखों में अश्रु थे। "तुम्हीं ने मुझे ऐसा बना दिया।" वह रोने लगा। अर्जुन दुखी होने लगा। किंतु उसे समझ ना आया कि केशव क्या कहना चाह रहा था।

केशव उठ गया और वहाँ से चला गया। उसने अर्जुन के हाथ नहीं खोले। कक्ष में केवल दो ही दीप जले थे। अर्जुन उन पुराने समय को याद करने लगा जब वह और केशव सुखी जीवन जी रहे थे।

केशव अर्जुन को तीर कमान सिखाने के लिए एक पुस्तकालय में लेकर गया था।

"कौनसी पुस्तक ढूंढ रहे हो?" अर्जुन ने केशव के आसपास घूमते हुए पूछा। तभी केशव हँसा। उसे एक शरारत सूझी। उसने अर्जुन को अपनी ओर खींचा और उसकी कमर से उसे पकड़ लिया  अर्जुन शर्मा गया। "क्या...कर रहे हों? यदि कोई आ गया तो?"

"तो आने दो ना!" कहकर केशव ने अर्जुन को दीवार से लगाया और उसे प्यार करने लगा। किंतु अर्जुन अभी तैयार नहीं था। उसने केशव को यह बेझिझक बताया।

उस दिन केशव ने अर्जुन को वचन दिया कि वह कभी भी अर्जुन को क्षति नहीं पहुंचाएगा और ऐसा कोई कार्य नहीं करेगा जिससे अर्जुन को आपत्ति हो।

किंतु अब वह वहीं कर रहा था जो अर्जुन को क्षति पहुंचा रहा था। अर्जुन को वह वचन स्मरण करके रोना आ गया। अब वह और भी अति शीघ्र वहाँ से निकलना चाहता था।

वह इन्द्रजीत की प्रतीक्षा कर रहा था।

दूसरी ओर इन्द्रजीत हर क्षण अर्जुन को खोजने के प्रयास में लगा था। इश्वर की कृपा से एक फल विक्रेता ने अर्जुन को पहचान लिया और बताया कि जय लोक के युवराज अर्जुन को अपने साथ राज निवास में लेजा रहे थे। ये सुनकर इन्द्रजीत, लव और तीर्थ दंग रह गए। इन्द्रजीत ने क्रोध से अपनी तलवार पर हाथ रखा।

"मुझे भय है कि अब युवराज संजय का क्या होगा।" लव ने तीर्थ के कानों में फुसफुसाया।

"उनके साथ जो होगा अच्छा होगा!" तीर्थ ने जोश में उत्तर दिया।

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