अध्याय 1 (भाग 4)

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महाराज एक एक करके सभी मेहमानों से वार्तालाप कर रहे थे उनके स्वागत के तौर पे। अब बारी थी अर्जुन की जो कि अंबुझ राज्य की तरफ़ से आया था।

"महाराज, आपके बारे में खूब सुना था पिता जी के मुँह से। आज देख भी लिया। वाकई में आपका तेज ही काफ़ी है आपकी योग्यता को दर्शाने के लिए।" अर्जुन ने त्रिलोक नाथ को प्रणाम करने के बाद कहा।

राजा त्रिलोक नाथ हँसे और बोले, "सच में क्या ऐसा कहा महाराज धनवीर ने?"

"जी।" अर्जुन ने जवाब दिया। वह हँसा।

राजा त्रिलोक नाथ और राजा धनवीर (अर्जुन के पिता) बचपन में बहुत ही खास मित्र हुआ करते थे। इस हिसाब से, अर्जुन उनके लिए एक खास मेहमान था।

"अरे! मेरे बेटे से तो मिलिए!" त्रिलोक नाथ ने कहा और इंद्रजीत को आवाज़ लगाई।

इंद्रजीत ने महाराज की ओर देखा और तुरंत ही वहां जा खड़ा हुआ। "महाराज, आज्ञा।" उसने सिर नीचे करके कहा।

त्रिलोक नाथ हँसते हुए बोले, "कुमार। आज कोई आज्ञा नहीं। यह है मेरे बचपन के परम मित्र के सुपुत्र, अर्जुन वेनू।" वह मुस्कुराया।

अर्जुन ने मुस्कुराते हुए इंद्रजीत की ओर देखा, "प्रणाम। मिल के खुशी हुई।" मधुबाला ने भी प्रणाम किया।

इंद्रजीत ने केवल सिर झुकाकर प्रणाम किया। वह एक शब्द भी नहीं बोला।

"ये तो बड़ी अजीब बात है। इतने बड़े राज्य के होने वाले राजा होते हुए भी ऐसे स्वागत करते हैं अपने अतिथियों का?" अर्जुन ने मुंह बनाते हुए सोचा। इंद्रजीत का मुस्कुराना या कुछ कहना तो बाद की बात है, वह तो अर्जुन की तरफ़ देख भी नहीं रहा था।

तभी वहां हँसराज भी आ पहुंचता है। उसने दूर से अर्जुन को देखा और हैरानी से बोला, "राजकुमार अर्जुन!" वह दौड़ता हुआ उसकी ओर भागा।

अपना नाम सुनाई देने पर अर्जुन ने मुड़ के देखा और पाया कि उसे पुकारने वाला कोई और नहीं बल्कि हँसराज था। वह भी उसे देख कर हैरान था, "मित्र हँसराज!" वह दौड़ते हुए उसकी ओर गया और दोनों ने एक दूसरे को गले लगाया। अर्जुन तो हँसराज को गले लगाते हवा में ही झूल रहा था। (छोटा कद जो ठहरा। हाहाहा!)

अब की बार इंद्रजीत ने उनकी तरफ़ अवश्य देखा।

मधु भी हँसराज के पास गई और उसने मुस्कुराते हुए उसके चरण स्पर्श किए। "अरे। खुश रहो।" हँसराज ने मधू को आशीर्वाद देते हुए कहा।

"हमारे लिए हैरानी की बात है।" महाराज ने कहा। "तुम दोनों एक दूसरे को इतने अच्छे से जानते होंगे, इसका ज्ञान मुझे नहीं था।"

"दरअसल, कुछ वर्ष पूर्व मैं अपने पिता के कहने पर आसपास के राज्यों में झड़ी बूटियों की तलाश में था। उसी वक्त मेरी भेंट राजकुमार अर्जुन से हुई। इतने प्यारे व्यक्ति से भला मैं मित्रता कैसे ना करता।" हँसराज ने जवाब दिया। (हँसराज के पिता जाने माने ज्ञानी वैद्य थे।)

"अच्छा। फिर?" महाराज ने उत्सुकता के साथ पुछा।

"फिर क्या। हम बातों ही बातों में कब इतने अच्छे मित्र बन गए, पता ही नहीं चला।" हँसराज ने जवाब दिया।

अर्जुन भी मुस्कुराया, "और उसके पश्चात हमने एक दूसरे को कबूतर के ज़रिए संदेश लिखने शुरू कर दिए।" मधुबाला भी मुस्कुराई।

इससे पहले उनके बीच कोई और बात होती, इंद्रजीत ने कहा, "महाराज, मुझे अब आज्ञा दें। बाकी मेहमानों का भी ख्याल रखना है।"

"अच्छा? ठीक है। " महाराज ने उत्तर दिया किन्तु अन्दर ही अन्दर वह चाहता था कि इंद्रजीत आज के दिन काम ना करे। इंद्रजीत बिना कुछ कहे वहां से चला गया। "माफ़ करना पुत्र। मेरा बेटा ऐसा ही है।" त्रिलोक नाथ ने अर्जुन और मधुबाला से क्षमा मांगते हुए कहा।

"कोई बात नहीं महाराज! आप क्षमा क्यों मांग रहे हैं?" अर्जुन ने तुरंत जवाब दिया।


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