काग़ज़

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काग़ज़

वो काग़ज़
वो काग़ज़ का टुकड़ा
जिसपे तुम्हारी कलम
बेबाक शब्द लिखती है,
ना जाने कौन से ख्वाब
लफ़ज़ो में बयाँ करती है!


तुम्हारी जुल्फ़े,
जो बिखर रही है उस काग़ज़ पर,
तुम्हारी साँसे
जो ठहर गई है उस काग़ज़ पर,
की दिल चाहता है
छिन लूँ,
वो कागज का टुकड़ा छिन लूँ,
और बस एक बार
दौड़ जाऊं,
उस कागज की सिलवटों में,
उन श्याही की नदियों में!
लिखावट की करवट में,
बेसब्री की चौखट में!
दौड़ जाऊं!


तुम्हारे अल्फाज़ों ने जो जहाँ,
बुना है,
उस जहाँ में कुछ पल बिता लूँ
और क्या पता,
किसे पता,
उस जहाँ की हवायें
तुम्हारी सांसो से बुनी हो
ये खेत ये खलिहान
ये परिंदे ये आसमान
कुछ और नही
बस तुम्हारा नूर हो,
तसव्वुर हो!
उस कागज पे सिमटा एक
छोटा सा संसार हो,
तुम्हारे अकेलेपन की पुकार हो,
उलझन मे उलझा
एक बेबस संसार हो!


~ August


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