तुम और तुम्हारा शहर

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तुम और तुम्हारा शहर


मुझे तुमसे और तुम्हारे शहर से
इश्क़ एक साथ हुआ था,
और सच पूछो तो दोनों में
फ़र्क़ भी क्या है।


तुम भी तो कुछ ढूंढ रही हो,
यह शहर भी कुछ ढूंढ रहा है।
जितनी उलझी सी गलियाँ
है तुम्हारी,
उतना ही सुलझा सा
एकांत है तुम्हारा।


तुम गुस्से में कैसे आग बबूला हो जाती हो,
यह शहर भी तो वैसे ही झुलस जाता है।
मैने देखा है तुम्हारे आँसू सुख जाते हैं,
यह शहर भी अपने गम भुला देता है।

मैं तो आज भी एक प्रवासी हूँ,
तुम्हारी जिंदगी के इर्द गिर्द
अपना अस्तित्व बुन रहा हूँ,
इस शहर में भी तो बस एक जिंदगी
एक पहचान ढूंढ रहा हूँ।


तुम बिल्कुल इस शहर सी हो,
तुम्हारे मन की कुलबुलाहट
और बस अड्डे के शोर में
भी तो कोई खास फ़र्क़ नहीं है, 
कोई खास फ़र्क़ नहीं है तुम्हारी महक
और इस शहर की सुबह में।


यह शहर कितना कुछ कह देता है
अखबारों, रेडियो और नाटकों में
तुम भी कितनी गुफ्तगू करती हो
खत, टेलीफोन, और मुलाकातों में।


इतने शोर में भी मैं
तुम्हारी खामोशी पहचानता हूँ
तुम्हे क्या लगता है,
मैं क्या इस शहर का इतिहास नहीं
जानता हूँ?



- आशुतोष मिश्रा

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