एक नौका थी

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एक कश्ती छोटी सी मेरी, सपनों की लहरों पे चली थी!

हवाओं से टकराती, घबराती, वो मेरी नौका निकली थी!

सागर की गहराइयों से अंजान, घुरती उन परिंदो को!

पंख फैला कर सफ़र पे निकली, काट गुलामी फन्दो को!


हाँ वो छोटी सी, मेरी कल्पना वो मेरी कश्ती थी




सूरज की किरणें दौड़ लगाती, छूने मेरी कश्ती को,

बादल में से बूंदे टपकी, देख के मेरी कश्ती को!

कुछ गीत हैं इन लहरों के, जो बहते बहते सुनता हूँ,

जल छलक पड़ा अब कश्ती में, किस्मत खुद की खुद चुनता हूँ!



पर वो छोटी सी, मेरी कल्पना, वो मेरी ही कश्ती थी!!




बारिश नही ये आँसू टपके, आसमान कुछ कहता है,

हवा नहीं अब आँधी चली है, पानी इतना गहरा है!

हर दिशा में मौत खड़ी है, अकेला खुद को पाया है,

कश्ती मेरी रूठ गई अब, ये वक़्त तूफान ले आया है



अकेली और सुनसान कल्पना, वो कश्ती, अब मेरी थी!





उम्मीदों की सरहद पर, चुपचाप खड़ी वो नौका थी,

टूट गया हर पुर्जा उसका, डूब गया हर मौका भी,

आँसू घुले सागर के जल में, नौका डूबी उस उलझन में,

कहाँ से लाऊँ दूजी नौका, कहाँ से लाऊँ दूजे सपने!


एक कल्पना भर थी वो, क्या सच में वो मेरी कश्ती थी?


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A/N


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This Poem I remember I wrote it while I was in my school days. It's a bit immature and childish, but whenever I revisit it, after all these years, I can't help but smile at my own weird thoughts. I personally love it despite it being a very amateurish attempt. 

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Thanks, again so much for reading! Cheers!

'Arrivederci'

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