"बिखरे लोग"
अक्सर बिखरे लोग, देर रात तक जागते हैं,
खोजते हैं शायद खुद को, बिखरे सितारो में.
अंधेरे से उन्हे डर नही लगता, रोशनी देख चौंक जाते हैं वो,
बिखरे लोग! जिनकी रूह की नादानियाँ किसी को समझ नहीं आती,
जिनके ताबिर की किसी को भनक तक नहीं!
बिखरे लोग, ये कुछ बिखरे लोग!
आसमान में देर रात ताकते रहते हैं ये लोग,
सांझ के परिंदो से शायद दोस्ती है इनकी,
क़ुरबत मैखानों से मुसलसल है इनकी,
इनके ख़यालों का रक़्स देखने आज रात रुकी है,
हर अफ़साने मे छुपि रूहानियत है इनकी!
न जाने किस आब्शार में मेरी मंज़िल छुपी है,
न जाने किस रेशम की डोर से ख़याल बुन रखे है,
जो इतने उलझे है इनके झक्मो से की अब सुकून को सुकून कहाँ,
आरज़ू दिल की दिल मे दफ़्न है, उसे भुलाने अंधेरे मे बैठे है,
ये कुछ बिखरे लोग!
कविता: आशुतोष मिश्रा
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दरवाजे पर दस्तक
Poesía[Highest rank: 34] तेरी मासूमियत को मेरी रूह चूमती थी, तेरी रूह को मेरी नवाजिश रास आती थी! It's a collection of my Hindi/Urdu Poetry.