*इश्क़ क्या*

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*इश्क़ क्या*


इश्क़ सवाल है
जवाब भी, 
इश्क़ हम सब में है,
थोड़ा नफरत में, थोड़ा जिल्लत में,
कभी हंसता है, कभी रोता है,
कभी महँगी दुकानों में सर खुजाता है
तो कभी नाले के उस पार रहने वालों
की मुस्कान में सिमट जाता है।
  
कभी समझ नहीं आता
तो कभी सिर्फ वही समझ आता है।
सुलझा है, उलझा भी है।
ज़िक्र में है तो खामोशी में भी है।
जितना शायद खुदा है,
उतना बेशुमार खूबसूरत हैरतअंगेज कर देने वाला इश्क़ भी है।
और इतना है तो काफी है। 

माना कि नफरत के दौर में जरा फीका पड़ जाता है,
पर वह एक छोटा कोना तलाश कर ही लेता है।
माना कि इसे भूल, जानवर बन जाना आसान है,
लेकिन फिर लौट आना और भी आसान।
नौकरी पाने जितना मुश्किल नहीं है,
पर ना ही सवेंदनशीलता को बेच देने जितना आसान।

मुझे लगता है आज बहुत सवाल खड़े हैं हमारे सामने,
और हर सवाल दानव जितना भयावह भी है।
 कुछ सवालों से घिन आती है तो कुछ सच्चाईयों से डर लगता है।
लेकिन इश्क़ जज्बाती जरूर है नाकाबिल नहीं।
वह रास्ते खोज लेता है, या वह खुद एक रास्ता होता है।
वह जवाब ढूंढ लेता है या वह खुद एक जवाब होता है।
इश्क़ तो इश्क़ होता है, ना हो तो ना जाने क्या होता है।


आशुतोष मिश्रा

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