इंद्रजीत पलंग पर लेटा हुआ सोच रहा था, "क्या इस प्रकार झूठ कहना उचित हैं? यह सब ठीक तो नही।"
तभी उसे याद आता हैं, कि उमा ने उससे क्या कहा था :
"कुछ क्षण के लिए अभिनय करना। फिर कह देना कि अब ठीक आभास कर रहा हूँ। इसमें कोनसा बड़ी बात हैं? इतना सरल तो हैं। बस लेटे ही तो रहना हैं।"
इंद्रजीत ने यही करने का निर्णय लिया। अर्जुन उसके कक्ष में ही रुकने वाला था। इसका अर्थ था, वे दोनों साथ समय व्यतीत करने वाले थे। यदि वह अधिक समय तक ठीक ना होने का अभिनय करेगा, तो अधिक वार्तालाप नही हो पाएगी। किंतु अर्जुन से वार्तालाप करना ही तो सबसे अधिक अवश्यक था। इसलिए शीघ्र ही अभिनय समाप्त करना होगा।
"आप जल लेंगे?" तभी अर्जुन ने पूछा।
"अवश्य..." इंद्रजीत ने खाँसते हुए कहा।
अर्जुन ने घड़े से जल निकाला और इंद्रजीत को दिया। इंद्रजीत उसे पीने लगा।
"आपके मस्तक की पीड़ा कैसी हैं?" अर्जुन ने पूछा।
इंद्रजीत जल पी ही रहा था। उसने तुरन्त जल पीना रोका और अर्जुन की ओर देखकर बोला, "थोड़ा ठीक हैं।"
अर्जुन हल्का सा मुस्कुराया, "जल पी लीजिये। उससे और आनंद आएगा।" उसने कहा।
इंद्रजीत ने तुरन्त सारा जल समाप्त कर दिया।
"और जल?"
"नही, नहीं। पर्याप्त हैं।"
अर्जुन ने जल का लोटा वापिस रख दिया।
"अर्जुन।" इंद्रजीत ने पुकारा।
"जी?" अर्जुन मुड़ा।
"आप... भी सो जाइये।" इंद्रजीत ने कहा।
"किंतु..."
"आप चिंता मत कीजिये। यदि मुझे कोई आवश्यकता होगी, तो मैं कह दूँगा। तब तक आप भी विश्राम कर लीजिये।" इंद्रजीत ने उत्तर दिया।
अर्जुन ने कुछ क्षण सोचा, फिर वैसे ही किया जैसा इंद्रजीत ने कहा। वह पलंग पर जाकर, इंद्रजीत के बगल में लेट गया।
कुछ लम्बे समय तक, वे दोनों शांत रहें। दोनों में से एक ने भी कुछ नही कहा। इतने समय पश्चात् मिलने के कारण, उन्हें समझ नही आ रहा था कि वे क्या बात करे। कहने को तो बहुत कुछ था, किंतु किस प्रकार कहे यह समझ नही आ रहा था। आरम्भ कहाँ से करे, समझ नही आ रहा था। यह उलझन थी।
तभी इंद्रजीत ने पहले बोलने का निर्णय लिया। उसने आह भरी, और साहसी बनकर बोला, "आपका पत्र मिला था..." वह धीमे से बोला।
अर्जुन ने तुरन्त उसकी ओर देखा। इंद्रजीत ने भी धीरे से उसकी ओर देखा। दोनों एक दूसरे के नेत्रों में देख रहें थे।
"युवराज, क्या आप...मेरा पत्र पढ़कर यहाँ आये?" अर्जुन ने हैरानी से पूछा।
"जी।" इंद्रजीत ने बेझिझक उत्तर दिया। "सत्य कहूँ तो.. मैं आपके पत्र की ही प्रतीक्षा कर रहा था।"
अर्जुन को यह सुनकर अत्यंत ख़ुशी प्राप्त हुई। वह मुस्कुराने लगा।
"यदि आपने पत्र नही लिखा होता, तो मैं शायद नही आता। मुझे यहाँ बुलाने के लिए धन्यवाद।" इंद्रजीत ने कहा।
अर्जुन ने दूसरी ओर देखा, "मैं..." वह कहते कहते चुप हो गया। इंद्रजीत उसके बोलने की प्रतीक्षा करता रहा, किंतु अर्जुन ने उसके पश्चात् कुछ नहीं कहा। वह शांत हो गया। इंद्रजीत ने उसपर दबाव नही डाला।
इंद्रजीत मुस्कुराया, "मेरी पीड़ा जा चुकी हैं। आप चाहे तो अपने कक्ष में जा सकते हैं।" वह बोला।
अर्जुन ने उसकी ओर देखा। कुछ क्षण के लिए दोनों एक दूसरे की ओर देखते रहें। फिर अर्जुन भी मुस्कुराया।
"नहीं, अब सो ही जाते हैं।" अर्जुन बोला। दोनों धीमे से हँसे।
वहीं अपने कक्ष में अकेली बैठी मधु, जो कुछ भी हुआ उसके बारे में सोच रही थी।
"अचानक युवराज की तबियत कैसे बिगड़ गई? लव और तीर्थ को लौटने में इतना समय क्यों? यें सब क्या हो रहा हैं, मुझे तो कुछ समझ नही आ रहा।" वह परेशान होकर बोली। उसने आह भरी और चुप चाप नेत्र बंद करके सो गई।
(लव और तीर्थ क्या कर रहें हैं, यें तो पूछिएगा ही मत... 😶🌫️)

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BL - क्षत्रिय धर्म सर्वप्रथम (Duty Always First)
عاطفيةस्वर्णलोक के राजकुमार, इंद्रजीत के लिए उसका कर्तव्य ही सर्वप्रथम है। राजा के आदेश पर अंबुझ राज्य के राजकुमार, अर्जुन उसे जीवन को खुलके जीना सिखाने की कोशिश करता है। क्या अर्जुन अपने इस नए इम्तिहान में सफल हो पाएगा ? क्या इंद्रजीत जीवन के इस नए रूख...