एक संघर्ष- एक मंजिल- गोआ

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सत्ता से आजाद हुआ जब भारतवर्ष अंग्रेजों की ,
तकदीर से संधि पूर्ण हुई जब नेहरू जी की ,
समस्त भारतवर्ष जब उमड़ पड़ा लालकिले में,
तीन रंगों का झंडा जब लहरा पड़ा लाल किले में।

तब था एक जहां, जहाँ मुक्ति न मिल पाई थी ,
स्वतंत्रता के पर्व पर, जहाँ शिश न उठ पाई थी।
अस्त- व्यस्त, त्रस्त - पस्त था यह संसार,
अत्याचारी पुर्तगालीयों से अभ्यस्त था यह संसार ।

बाण से जन्मी जो धरा परशुराम की ,
उस गोआ की स्थिति हो गई थी पाताल - सी।
जब फख्र से उठ रहा था हर भारतवासी का सिर,
तब क्रूरता से कट रहा था इस राज्य-वासियों का सिर ।

असंख्य देशभक्त लगा दाँव पर जिंदगी अपनी,
साकार करने में लगे थे मुक्त गोआ का स्वप्न।
राम आपटेजी, गणबा दुभाषी, लाड शामराव, लवंडेजी;
सिध्देश्वर, श्रीपाद, दयानंद, वीर बाळा मापारी जी ।

बहने लगी मांडवी में जब प्रवाह -धारा २क्त की,
गांधी की एक पुकार से तब आई लोहिया की छड़ी।
सेना जो भेजी भारत ने हेतु विजय की प्राप्ति,
जिससे मिली मुक्ति गोआ को, उन्नीस दिसंबर की घडी़ ॥

उन्नति के राह पर फिर चल पड़ा अपना गोआ
न रुका, न गिरा, न मुड़कर पीछे देखा।
स्वतंत्रता के लिए भारत का ऋणी था अपना गोआ ।
अर्थ हेतु ऋणी है भारत अब अपने गोआ का ॥

पर्यटन, प्रशासन, खेल, सूचना-प्रसारण, शिक्षा -नीति
हर क्षेत्र में अव्वल खड़ा है अपना गोआ ।
फ़ख्र है मुझे कहने में आप को वासी गोआ का,
जो विश्व में सम्मान बना है, हम सब के भारतवर्ष का ॥

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