बेटी नहीं है बेटा

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मन में मेरी थी, एक अजीब-सी कशमकश
सोचकर, कि क्या सोचेगा पढ़कर शीर्षक,
इस कविता का पाठक।

समझना इस शीर्षक को नहीं आसान
पर फिर भी समझना बिल्कुल आसान
हैं बातें दो इसमें ;
बेटी, नहीं है बेटा ।
बेटी नहीं है, बेटा।।

अल्पविराम ने खेला खेल
कर दिए शीर्षक में दो भेद
चिंतक के चिंतन से ही,
निकले इसमें छिपे संदेश।

बेटी, नहीं है बेटा
कभी बेटी को बेटा ना कहो।
क्योंकि इससे हो जाएगा,
बेटा-बेटी ये दो पद समान
जबकि ये हैं कतई नहीं समान ।

बेटी का स्थान हैं वहाँ ,
जहाँ बेटे की परछाई तक न पहुँच सके।
लगेंगे सहस्त्र वर्ष अभी
बेटों को पहुँचने में, बेटी के स्थान ।

नहीं है जरूरत पुरुष- महिला समानता की ,
क्योंकि इससे महिलाएँ नीचे आ पहुँचेंगी।
नारी का स्थान, पुरुष से कहीं ऊपर है,
समानता से वो पीछे आ जाएँगी।

नारी है वह जिसे पुरुष अपने सिर - आँखों पर रखता है,
नारी है वह जिसके आन के लिए महाभारत हो उठता है,
नारी है वह जिसके प्रेम में रावण से युद्ध छिड़ जाता है,
नारी है वह जिसने सृष्टि को रचा है।

अतएव बेटी नहीं है, बेटा ; क्योंकि -
बेटा बूढ़े माँ बाप का आजकल नहीं सहारा बनता है,
बेटी कहीं भी हो अपने जड़ों को हमेशा सिंचती है।
बेटा संपत्ति के मोह में करे उनका इलाज,
किंतु बेटी प्रेम की गंगा बहाकर
कर दें उनके रोगों को परास्त ।

अब मुझे है विश्वास,
पाठक होगा शीर्षक से संतुष्ट पर्याप्त ॥

                                                    लक्ष्य

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