नर्तकी

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क्या रंगमंच सजाया था,
नृत्य का अद्भुत प्रदर्शन था,
क्या निराली शाम थी वह
जहाँ एक दिन मैं पहुँचा था।

यूँ तो थी कई नर्तकियाँ वहाँ
सम्राज्ञियाँ अपनी- अपनी नृत्य-कला की;
अकस्मात् निगाहें मेरी ठहर गई वहाँ
जहाँ सँवर रही थी शायद एक अप्सरा ।

कौन थी वो ? कहाँ से आई थी?
क्यों मेरी पलकें झपकने से कर रहीं थीं इंकार?
हृदय मेरा बैठ-सा गया इंतजार में,
उस नर्तकी के नृत्य- तरंग में धड़कने को बेकरार।

पाँच मिनट का इंतजार, मानो पाँच वर्ष बीते हों,
उसके आगमन से लगा मानो कोई मृगतृष्णा हो।
श्रृंगार ऐसा जो पाश्चात्य भी शर्मा जाए;
तेज़ ऐसी जो सूर्य को छिपा जाए।

कर प्रणाम भूमि को नृत्य हुआ आगाज;
सुर-ताल के सरगम पर नैन चल रहे थे चाल,
पैर की पटकन ऐसी मानो धरा दहल उठे।
घुंघरू की आवाज ऐसी जो मेघ भी थर्रा उठे।।

ऊर्जा से भरपूर ना जाने कब वह नृत्य समाप्त हुआ
सूर्य की किरणें पड़ी मुझपे कार्यक्रम खत्म हुआ
एक लकीर खिंच गई नादान मुस्कुराहट की,
दुःख हुआ जानकर वह नर्तकी एक स्वप्न थी।

लक्ष्य

चित्रः इंटरनेट से।

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