बस दो कदम दूर।

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कोई रुका है तन्हा यादों में तेरे,
कदम बढ़ाने की हिम्मत नहीं है।
जा ढूँढ ले वक्त ज़ाया ना कर
एक खूबसूरत लम्हा खोने से तू बस दो कदम दूर है...

यूँ ही ना हल्के में ले मेरी बातों को
उसके एक एक शब्द का मतलब वाजिब है,
कहीं देर ना हो जाए समझने में तूझे
एक खूबसूरत आस पाने से तू बस दो कदम दूर है...

मेरे शब्दों का भारी होना एक छलावा है
उसका एक हिस्सा, एक डोर की तरह, बहुत ही हल्का है,
कहीं देर ना हो जाए उस डोर को पकड़ने में तुझे
एक नाजुक बंधन में समा जाने से तू बस दो कदम दूर है...

गलती बेशक तुम्हारी नहीं होगी
अगर मेरी बातों को समझ ना पाई तो
ले लो वक्त पर कहीं देर ना हो जाए
एक अरसे से प्यासे मुसाफिर को तृप्त करने से तू बस दो कदम दूर है...

लग सकते हैं तुम्हें शब्द डरावने मेरे
पर अपनी नज़रों को उस डर से आगे बढ़ाने की जरूरत है
अगर चश्मों की जरूरत है तो उसे भी आज़मा लो
एक अंधे को रौशनी देने से तू बस दो कदम दूर है..

नहीं देख सकती तुम जज्बात एक अधखिले फूल की
जिसे ख़िलने के लिए तेरी किरण की जरूरत है
बदकिस्मती कहुँ या मजबूरी,
उस फूल को दरख्वास्त करने का शऊर नहीं है।

छुपे हैं उसके जज़्बात दोस्ती की आड़ में
डर है सताता उसे कहीं एक अदब मित्र को खो ना दे,
पहचान लो उसे कहीं खिलने से पहले ही मुर्झा ना जाए
एक कली को खिलाने से तू बस दो कदम दूर है...

ये सब पढ़ के तू पड़ गई होगी उलझन में
इसका जवाब तो कविता के शुरु में ही निहीत है,
जल्दी से ढुंढ ले इस पहेली की चावी को
किसी से कदम से कदम मिलाने से तू बस दो कदम दूर है।

लक्ष्य

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