सिर्फ़ तुम

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कभी इत़्मीनान से बैठूँ
लामहदूदीयत में कहीं खो-सा जाऊँ
नैनों को बंद जब भी मैं करुँ
कोई अगर दिखता है तो वो हो सिर्फ़ तुम...

कभी जिंदगी की हलचल से दूर होऊँ
एक अमन का आभास जगाऊँ
कानों को कुछ भी सुनने से जब भी रोकूँ
कोई अगर सुनाई देता है तो वो हो सिर्फ़ तुम...

कभी एहसासों से परे अपनी रूह से गुफ़्तगू करुँ
आसपास के आभासों से खुद को अलग करुँ
जब भी कुछ ना सोचने की कोशिश करुँ
कोई अगर महसूस होता है तो वो हो सिर्फ़ तुम...

जब भी सोने की जद्दोज़हद में ख़यालों से कुश्ती करुँ
करवटों को बदलते-बदलते थक-सा जाऊँ
तब जो निंद गहरी आती है, मैं जब भी सो जाऊँ
ख़्वाबों में कोई अगर दिखता है तो वो हो सिर्फ़ तुम...

मन जब भी बहकने निकलता है
गुलों की वादियों में कहीं खो-सा जाता है
बोरीयत से चूर किसी कोने से जब एक आस पुकारती है,
मोहब्बत करने की चाह अगर किसी से है, तो वो सिर्फ़ तुमसे...

जब भी साँसों से पूछुँ वे किसके लिए बेचैन हैं,
जब धड़कनों को पूछुँ वे किसके इंतज़ार में हैं
उनके जवाबों में कोई मिलता है तो वो हो सिर्फ़ तुम...
इश्क़ मुझे जिससे हुआ है वो हो सिर्फ़ तुम...

लक्ष्य

(यह मेरी पहली ऊर्दू कविता है। 🤗)

चित्र स्त्रोत: इंटरनेट से।

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