द्वापर युग में शुरू हुई जो पाप की एक बाणगी
कलयुग तक आते आते फैल चुकी है गली गली;
उस वक्त हुआ था चिरहरण एक पांचाली का,
आज रोज रोज हो रहा है, सैकड़ों द्रौपदियों का!!उस वक्त भी बाकी सब मूकदर्शक बने थे ,
आज भी सब के सब धृतराष्ट्र बने पड़े हैं!
उस वक्त भी ना किसी ने आवाज उठाई थी,
आज भी सबके आंखों पर है पट्टी रानी गांधारी की!!!उस वक्त भी पांचाली चीखी थी चिल्लाई थी,
आज भी वह पल पल मदद हेतु पुकारती है।
फर्क बस इतना है कि उस वक्त कृष्ण रक्षक थे,
आज सामने से गुजरते भी, सब बधिर चुप हैं।उस वक्त भी द्रुपद - कन्या ने न्याय माँगा था,
आज भी सैकड़ो कन्याएँ न्याय को तरसती है,
फर्क बस इतना है कि तब न्यायाधिश वासुदेव थे,
आज न्यायाधिशों पर भी प्रश्न- चिन्ह लगा है।उस वक्त भी कौरवों ने गंदी हँसी दिखाई थी;
आज भी उन बद्तमीजों की हँसी में है वहीं गंदगी ।
फर्क बस इतना है कि तब वे सौ थे,
आज विडंबना यह है वे लाखों में विद्यमान है।वे खुलेआम घूम रहे हैं, नाबालिग का चोगा पहने।
वे सूली से दूर हैं, मानवाधिकार की छत्रछाया में।
आज बलात्कारियों को सजा दिलाना महाभारत से कम नहीं,
इतनी लंबी हो चली है, देश की सड़ी न्याय प्रणाली ॥लक्ष्य
क/टि: यह कविता को गोवा मेडिकल कॉलेज की वार्षिक पत्रिका "गोमेकॉन" के 2018 की प्रति "किरामेकी" में सर्वश्रेष्ठ हिंदी कविता का पुरस्कार मिला।
आप पढ़ रहे हैं
वास्तविक कविताएँ
Poesiaनमस्कार ! मैं लक्ष्य हूँ। मैं एक MBBS छात्र हूँ।😌 यह मेरे हिंदी दीर्घ और लघु कविताओं का संकलन है।😃 मैंने नौवीं कक्षा से कविताएँ लिखना शुरू किया और उन्हें फेसबुक पर डालता था। कई सुझावों के मद्देनज़र मैंने अपने ख़यालों को एक अलग मंच देने का निर्णय ल...