अनोखा रिश्ता

37 5 9
                                    

चुटकी ही ली होगी उसने
एक दिन मेरे सामने एक प्रश्न आया
बहुत है गुमान तुम्हें 'हम' पर
बताओ मेरा तुम्हारा क्या रिश्ता है भला ?

असमंजस किसे कहते हैं
उस दिन मैं समझ पाया
इसलिए नहीं की मालूम नहीं जवाब
पर इसलिए की ज्ञात उत्तर को पिरोऊँ कैसे भला ?

हमारा रिश्ता ऐसा है जैसे वह मरूद्यान
जिससे उस राहगीर की सिर्फ प्यास ही नहीं बुझती
किंतु उसके सानिध्य से,
उसके जीवन को है एक परिभाषा मिलती।

हमारा रिश्ता ऐसा है जैसे वो चंद्रमा
जिससे उस भटके हुए अभागे को सिर्फ राह ही नहीं दिखती
बल्कि बिखरी हुई चाँदनी से,
उसके अंतरमन की स्वच्छता भी है निखर उठती।

हमारा रिश्ता ऐसा है जैसे वह सूक्ष्म प्रकाश
जो रात के अंधेरे में ना सिर्फ है दिशा दिखाती
किंतु उस तक पहुँचने के निश्चय से,
राहगीर की दृढ़ता भी है सज़ग होती...

हमारा रिश्ता ऐसा है जैसे वह अनसुलझी पहेली
जिसमें भटका हुआ वो यात्री किंचित भी दुःखी नहीं
क्योंकि उसे इस पहेली के निष्कर्ष की परवाह नहीं,
इस "दोस्ती" की यात्रा से ही मिलती है उसे एक प्यारी सी तृप्ति !!

लक्ष्य

यह कविता मेरे परम मित्र देवाशिष DewashishSoni  को समर्पित है।

चित्रः इंटरनेट से।

वास्तविक कविताएँजहाँ कहानियाँ रहती हैं। अभी खोजें