मैं चिकित्सक हूँ।

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आज पिताजी को बिस्तर पकड़े कुछ बीस दिन हुए होंगे,
आज माँ को घर संभालते हुए बहुत थकान हुई होगी।
आज छोटी बहन मुझे क्लास में बताई गई कहानी को सुनाना चाहती थी,
आज भाई को अच्छे अंक मिलने पर बाहर घूमाने ले जाना था।

पर मैं अपने परिवार से दूर हूँ,
दूसरों के परिवारों के सुख-दुःख का भागी बनने।
आज फिर मैं छत्तीस घंटे के ड्यूटी पर आया हूँ,
मैं चिकित्सक हूँ॥

अभी अभी एक बच्चे की उल्टी को रोक कर आया हूँ,
एक साथी को कहकर थोड़ा सुस्ता लेता हूँ,
माँ ने एक फोन करने कहा था
पर अब बटन दबाने की ताकत नहीं।

अचानक साथी ने आवाज लगाई
मैं सहमा, अधजगा बाहर जाता हूँ,
एक बुजुर्ग मरीज़ अधमरे हालत में था,
उसके परिजन बहुत परेशान थे।

उन्होंने कहा की उन्हें टहल के दौरान गाड़ी ने टक्कर दे दी;
चोट नहीं आयी पर अचानक घर में बेहोशी आ गई
मैंने नब्ज देखे, शायद ही चल रहे होंगे
आँखें फिकी थी, रक्तचाप एकदम कम था।

मैं समझ गया था, एक एक्स-रे की माँग की
जांघ के माँस में अंदरूनी खून जमा था
वह "शॉक" में जा चुका था
मैंने सीनियर को फोन कर तुरंत आने को कहा।

तब तक मैंने कुछ सुईयाँ लगाई, पानी चढ़ाया
जब तक वो पहुँचते वह जंग हार चुके थे।
परिजनों को बताया जाकर, बड़ी देर हुई आने में
कोशिश तो बहुत की पर बचा नहीं पाए उन्हें।

इतना कहकर मुड़ा ही था, मेरे साथी ने इशारा किया
मैं समझ ना सका और फर्श पर गिर पड़ा,
सर घूमने लगा, सब कुछ धुँधलाने लगा
दो तीन और प्रहार सर पर हुए होंगे, होश मैं खोने लगा ॥

मुझे पिताजी का ईलाज कराना था, माँ के पाँव दबाने थे
बहन की कहानी सुननी थी, भाई को घूमाने ले जाना था।
पर अब मैं यह सब करने में असक्षम हूँ
किसी के क्रोध ने मेरे जीवन के दीपक को ग्रहण लगा दिया है।

                                                      लक्ष्य
#NRSMCH
I condemn violence against doctors...

क/टि: यह कविता को गोवा मेडिकल कॉलेज की वार्षिक पत्रिका "गोमेकॉन" के 2019 की प्रति "क्रिजॅलिस" में सर्वश्रेष्ठ हिंदी कविता का पुरस्कार मिला।

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