जब सहबा-ए-कुहन...

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जब सहबा-ए-कुहन सागर-ए-नौ में टपकती है
भूली बिछड़ी यादें भी सावन जैसी बरसती हैं

गर्म जोश तेरी निगाहें जब बर्फ सी ठंडी पड़ती है
बज़्म-ए-खामोशी भी बर्क बराबर कड़कती है

किस गुल से हुस्न टपकता है किस खुश्ब की रवानी रहती है
तेरे नर्म होंठो की अरक हर गुलशन की कहानी कहती है

तेरी नजरों से सोज बरसता है तेरी पायल साज सी बजती है
तेरे घर के दरीचों पे मेरी नजर आज भी रहती है

हमारे इश्क के फसानो से जब महफिलें सज उठती है
तब सहबा-ए-कुहन सागर-ए-नौ में टपकती है

Quoted by-- Aria

तसव्वुर (Urdu Poetry)जहाँ कहानियाँ रहती हैं। अभी खोजें