एक ग़ज़ल

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क्यों मौत जिंदगी से आसान लगती है
हर चौराहे पर मौत की दूकान लगती है।

महँगे हुए जा रहे तमाम सामान यहाँ
सबसे सस्ती तो अपनी ही जान लगती है ।

उम्र भर तलाशते हम वजूद अपना
भीड़ में खो गयी अपनी पहचान लगती है ।

ख़त्म नहीं होता ख्वाईसों का सिलसिला
खुशि हमसे अब तलक अनजान लगती है।

जिंदगी बोझ, या हम बोझ जिंदगी पर
आसमाँ लगे जमीं, जमीं आसमान लगती है।

नजर आता है हर शख्श भागता हुआ,
दो कदम चलते ही अब थकान लगती है।

हर दोस्त अब अजनबी सा लगता है,
सबके चेहरे में झूठी मुस्कान लगती है।

मीठी लगने लगी है बातें मौत की,
ज़िन्दगी अब बद जुबान लगती है।

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