स्त्री

2.1K 5 2
                                    

कब सीखोगे तुम,स्त्री के, ना को ना समझना,
सब समझती हैं हम, नादान ना समझना।

अपनी इच्छाओं को तुम, हम पे थोप देते हो,
सँभलते नहीं बीज तुमसे,तो हम में रोप देते हो,
हम भी तो इंसान हैं, है जीने का हक़ हमें,
खुद को तुम हमारा, भगवान ना समझना।

जिस कोख से जन्मे, उसी से विश्वासघात किया,
सहा धरती सा हमने, तो हम पे वज्रपात किया,
जब चाहे तुम गरजे, जब चाहे तुम बरसे,
इन गुणों से  खुद को, आसमान ना समझना।

स्त्री को जीत कर क्या, तुम पुरुष बन जाओगे
हमें रुला कर तुम क्या, महापुरुष कहलाओगे
अब न सहेंगी हम, तुम्हारे अत्याचारों को,
शैतान हो तुम, खुद को, इंसान ना  समझना ।

पा न सकोगे कभी भी, हमारे हृदय की थाह तुम,
दी नहीं सजा हमने, तो करते रहे गुनाह तुम,
है हिम्मत अगर तो, स्त्री बनकर दिखलाओ,
स्त्री बनना  पुरुष  सा, आसान न समझना ।

कब सीखोगे तुम,स्त्री के, ना को ना समझना,
सब समझती हैं हम, नादान ना समझना।

एक कविताजहाँ कहानियाँ रहती हैं। अभी खोजें