मैं पत्थर हूँ, इसलिए चुप रहता हूँ,
मैं पत्थर हूँ, इसलिए सब सहता हूँ...
पैरों के ठोकर, पानी की धार,
टूटने तक हथौड़ों के, निरंतर प्रहार.
ए शिल्पकार, तुझे नमन,
गढ़े हैं तुमने मुझसे, कितने ही भवन.
मुझे तो पत्थर, बनाती है प्रकृति,
पर तुम बदल देते मेरी संपूर्ण आकृति,
देकर ईश्वर का दर्जा मुझे,
पूजती तुम्हारी संस्कृति.
कहीं पे राम, कहीं पे श्याम,
तुमने मुझमे दर्शाया है,
मेरे ही हिस्सों से तुमने,
चारों धाम बनाया है.
औजारों से कट कर खुद मैं,
बनता हूँ औजार,
मंदिर, मस्जिद, गिरजा सबका,
बनता मैं आधार.
नीव बनकर इमारतों का,
उठा लेता हूँ भार,
सेतु बन कर, राम लखन को,
कराया सागर पार.
बाँध बनकर रोका है मैने,
कितने ही चंचल नदियों को,
कोणार्क, हम्पी जैसे ही कितने,
सहेजे हैं मैने सदियों को.