कविता

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सबने ढूंढा कविता को,
कविता दिखी सबको,
अलग अलग जगह, अलग अलग रूप में,
कभी बारिश में भीगती हुई
कभी बालों को सुखाती हुई धुप में

सबने पीछा किया कविता का, पकड़ना चाहा
शब्दों की बेड़ियों में उसे जकड़ना चाहा
पर वो भी छिपती छिपाती भागी जा रही थी
किसी के हाथ न आई
किसी के साथ न आई

मैंने पूछा कि वो ऐसा क्यों कर रही है
साथ आने से क्यों डर रही है

वो बोली -" मैं मुक्त रहना चाहती हूँ,
निरंतर बहना चाहती हूँ,
तुम कवियों के माध्यम से बहुत कुछ कहना चाहती हूँ, पर मुझे कैद न करो अपने शब्दों में,
मैं रहूंगी तुम्हारी कल्पनाओं में, विचारों में
सूरज चाँद सितारों में
धरती में, गगन में
बादल, बिजली, पवन में
मैं हर उस जगह मिलूंगी जहाँ तुम मेरी कल्पना करोगे
शब्दों में मुझे नहीं, मुझमे अपने शब्द भरोगे
अच्छा अब चलती हूँ मिलती रहूंगी
जहाँ होगी मेरी चर्चा वहीं मैं खिलती रहूंगी।"

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