जिंदगी धुआँ धुंआ

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किसी ने उसे, छोड़ दिया था अकेला
धुआँ छोड़ती वो ,चली जा रही थी,
कुछ जल रहा था, हाथों में उसके,
खुद भी तो वो, जली जा रही थी।

लापता हर मंजिल, गुमशुदा हर ठिकाना,
बस तन्हा तन्हा गली आ  रही थी,
दिए लाख धोखे, ज़माने ने उसको,
वक़्त के हाथों, छली जा रही थी।

न भूख लगती थी,न प्यास लगती थी
पी कर आँसुओं को, पली जा रही थी
मार रही थी हर पल जिंदगी उसको
कमबख्त मौत, टली जा  रही थी।

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