Chapter 22 - Palak (part 3)

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हैलो दोस्तों, देरी से नया भाग प्रकाशित करने के लिए माफ़ी चाहूंगी। इसके बावजूद मैंने दिल लगाकर इस चैप्टर को लिखा है। लेकिन फिर भी अगर कोई कमी हो तो प्लीज़ संभाल लेना। और अपने कमाल के एक्स्पीरियंस इस चैप्टर के कॉमेंट बॉक्स में ज़रूर साझा करिएगा।
साथ ही मैं छुपेरुस्त पाठक को भी धन्यवाद करती हूं जो बिना भूले मेरी कहानी पढ़ रहे है। लेकिन अगर आप यूंही गुमशुदा रह जाएंगे तो मुझे अच्छा नहीं लगेगा। इसलिए प्लीज़ इस कहानी को अच्छी रेटिंग दे और अपनी खुशी तथा अनुभव ज़ाहिर करे। इस असंभव सी यात्रा का हिस्सा बने। एक लेखक काफ़ी मेहनत और लगन के साथ कोई कहानी लिखता है। और आपको उसकी कहानी पसंद आती है फिर भी अगर आप उसके साथ अपनी खुशी साझा नहीं करेंगे तो ये कितनी असंवेदनशील बात होगी। मेरे लिए आपके वोट और कॉमेंट कीमती रहेंगे। इसलिए अपनी खुशी साझा करना बिलकुल न भूले।
आपकी, बि. तळेकर ♥️
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कहानी अब तक: "क्या आप फिर मुझसे मिलने आएंगी, पलक?" उस प्यारी सी बच्ची ने मेरी आंखों में रहस्यमय ढंग से देखते हुए पूछा।
वो अच्छी दिखने में बिल्कुल आम बच्चों जैसी थी। मगर उसकी असामान्य लय में बोली गई बातें और उसके देखने का ढंग मेरे दिल में असहेज भाव जगा रहा था। मगर उसकी भोलीभाली सूरत देखकर मैं उसे चाहते हुए भी मना नहीं कर पाई। और मैंने सर हिलाकर हामी भर दी।

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अब आगे...

बुधवार सुबह 7:00 बजे
आंखे खोलते ही मैंने ख़ुद को ऊपर के कमरे में अपने बिस्तर पर लेटा पाया, जिसे देखकर मैं सुन पड़ गई। दो दिनों पहले इसी कमरे में मेरे साथ घटी उस भयानक घटना को लेकर मैं अब तक परेशान थी। इसीलिए खुदको एक बार फिर उसी कमरे में पाकर मैं परेशान हो उठी।
मैं घबराकर अपने बिस्तर पर उठ बैठी । तभी खिड़की के काच से आती सूरज की तेज़ चमकती किरणें मेरे चेहरे पर पड़ी। और उसी चमकती किरणों के बीच मुझे एक सुकून का आभास हुआ। इसके अगले ही पल मैंने गौर किया कि अब इस कमरे में मुझे किसी तरह की कोई घबराहट नहीं हो रही थी। और नाहीं मुझे घुटन या डर मेहसूस हो रहा था। उलटा इस वक्त मैं काफ़ी तरोताज़ा और फुर्ती मेहसूस कर रही थी। सुबह के उजाले में मुझे काफ़ी सुकून मिल रहा था। मेरी थकान अब बिल्कुल उतर चुकी थी और मेरे शरीर में ताज़गी भर आई थी।
अगले पल आंखे मसलते हुए जब मैंने सर उठाया तो चंद्र होठों पर अदृश्य मुस्कान लिए बिल्कुल मेरे सामने खड़ा था। खिड़की से आती हल्की सुनहरी धूप उसके अर्धपारदर्शी चेहरे पर चमक रही थी, जो उसे रेगिस्तान में पड़ते मिराज की तरह आकर्षक बना रही थी। उसे अपने सामने पाते ही मेरे होठों पर अपनेआप मुस्कान बिखर गई।
मुझे समझ नहीं आ रहा था कि जब पिछली रात मैं नीचे सोफा पर सोई थी तो यहां कैसे पहुंची?! क्या चंद्र मुझे यहां लाया था?! मैं इन दोनों संभावनाओं को लेकर असमंजस में थी। लेकिन इसके बावजूद चंद्र की मौजूदगी मेरे चेहरे पर मुस्कान ले आई।
"चंद्र.!" उसे देखते ही मेरे होठों पर उसका नाम उभर आया, "इतनी सुबह तुम यहां?!" और मैंने धीरे से सवाल किया।
"मैं बस देखने आया था कि तुम ठीक हो।" मद्धम गति से मेरे पास आते हुए चंद्र ने कहा।
"मैं ठीक हूं, चंद्र।" सामने दीवार पर टंगी घड़ी में समय देखते ही, "असल में काम का कुछ ज़्यादा ही तनाव है। इसलिए कल मैं बहोत थक गई थी। लेकिन अब मैं बिल्कुल ठीक हूं।" मैंने जल्दी से उठकर अपना बिस्तर समेटना शुरू कर दिया।
तब अचानक, "शुक्रिया, चंद्र..!" अपने काम के बीच मुड़कर पीछे चंद्र की ओर देखते ही मैंने हल्की मुस्कान के साथ कहा।
"शुक्रिया.?" मेरी बात सुनकर चंद्र सोच में पड़ गया।
"कल तुम मुझे यहां ले आए, इसलिए।" मैंने अपनी बात समझाते हुए धीमे स्वर में कहा और मेरी बात सुनते ही चंद्र ने मुस्कुराते हुए अपनी पलके झुका ली। जैसे वो किसी बात से शर्मा रहा था।

Asmbhav - The Mystery of Unknown Love (1St Edition) #YourStoryIndiaजहाँ कहानियाँ रहती हैं। अभी खोजें